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1. मियाँ का नाम -
शेखुल कामिलीन सरताजुल असफिया फखरूल औलिया महबूबुल आरेफीन असद हसनी हज़रत ख़्वाजा सूफ़ी व साफी (डॉ.) अब्दुर्रज्जाक शाह हकीमी हसनी अबुल उलाई मद्दाजिल्लाहुल आली,
जूनिया षरीफ जिला अजमेर शरीफ (राजस्थान)

2. शेखुल कामिलीन सरताजुल असफिया फखरूल औलिया महबूबुल आरेफीन असद हसनी हज़रत ख़्वाजा सूफ़ी व साफी (डॉ.) अब्दुर्रज्जाक शाह हकीमी हसनी अबुल उलाई मद्दाजिल्लाहुल आली
हैयात मुबारक (जीवनी)

 

आबाद खुदा रखे साकी तेरा मयखाना।

हमेशा खुश रहे तू दुआ है मुरीदाना।।

 

शेखुल कामिलीन सूफी डॉ. अब्दुर्रज़्ज़ाक शाह का षुमार हजरत महबूबे सुल्तानुल औलिया ख्वाजा सूफी हकीमुद्दीन शाह के खलीफाए किराम के साबेकीन अखलीन व अव्वलीन में है। आपकी जाते गिरामी सिलसिला आलिया जहाँगिरीया के आसमान पर एक रोशन सूरज है। जिसकी नूरानी किरणों से लाखों अफराद रोषन हो रहे हैं। इल्म, फजल और मुजाहिदा के ऐतबार से भी आप अपनी मिसाल आप हैं। दुनियावी एतबार से आप खानदानी तालुकात इरावत नागौरी है। गरीब नवाज के करम से आपके खानदान के बुजुर्ग नागौर शरीफ से खो नागौरियान और वहां से दौसा की सरज़मीं पर जलवागर हुऐ।

विलादत बा सआदत

कस्बा दौसा में जनाब हाफिज मुनीर खां साहब एक मौअज़िज़ व ज़िम्मेदार शख्स थे। अल्लाह ताला के फ़ज्लो करम से हर तरह की खुशियां आपके दौलतखाने पर थी। हज़रत शेखुल कामिलीन सरताजुल असाफिया फखरूल औलिया मेहबूबुल ओरफिन हजरत ख्वाजा सूफी व साफी डॉ. अब्दुर्रज्जाक शाह साहब किबला मद्दाजिल्ला हुल आली की विलादत बा सअ़ादत तारीख 21 जुलाई सन् 1940 को आपके वालिद माजिद हज़रत हाफिज मुनीर खां साहब रह. के मुक्ददस घराने और पाकीजा खानदान में हुई। वालिदा माजिदा का इस्मेगिरामी मोहतरमा बतूल बेगम था। वालिदैन की तहज़ीब की गोद में इखलासो व अखलाक़ के साए इल्म व आगही के पालने और शरीअ़तो तरीकत की आगोश में परवरिश होने लगी। अभी आप कमसिन उमर ही थे कि वालिद माजिद का साया आपके सर से उठ गया। जैसा कि बाज बुजुर्गोने दीन के साथ हुआ है। आपकी वालिदा माजिदा ने बड़ी आला हिम्मत का सबक देते हुए आप सभी भाई-बहिनों की परवरिश बड़ी जद्दोजहद के साथ पूरी की और आप सभी हजरात अपनी वालिदा की आलातरीन परवरिश की बदौलत दुनियावी, दीनी एवं रूहानी तौर पर आला मर्तबे पर फाईज़ है।

तालीम

दीनी ताअलीम आप (हज़रत सूफी डॉ. अब्दुर्रज्जाक शाह) ने हजरत मौलवी निजामुद्दीन साहब वारसी के जे़रे साया हासिल की। दुनियावी ताअ़लीम का तअल्लुक स्कूलों व कॉलेजों से रहा आपकी दुनियावी तालीम आला मर्तबे की है जो मुन्दरजा जै़ल:-
एम. ए. - इतिहास व अंग्रेजी
एम. एड. - शिक्षा
पी. एच. डी.- तालीम में डाक्टरेट की डिग्री
यह डिग्रीयां आपकी आला तरीन शख्शियत का इज़हार करती है। आपको तक़रीबन सभी भाषाओं का इल्म है। यानि हिन्दी, अंग्रेजी, अरबी, फारसी, उर्दू, संस्कृत आदि। आपकी रूहानी तालीमात हजरत महबूबे सुल्तानुल औलिया की साया ए आतफत में हुई। तालीम के साथ-साथ आप एक आला दर्जे के खिलाड़ी भी रहे और उस ज़माने में यानि 1958-59 में आप जयपुर महाराजा कॉलेज टीम के कप्तान भी रहे। (छात्र जीवन) तालिब इल्मी के दौर में आप दो बार जनरल सैक्ट्ररी (प्रधान मंत्री) दौसा कॉलेज के रहे तथा एक बार महाराजा कॉलेज स्टूडेंट यूनियन के एमपी भी रहे। आपने जरिया ए मास के लिए सूबा राजस्थान के महकमा ए तालिमात (षिक्षा विभाग) में षिक्षक की नौकरी की और रिटायर्डमेंट के समय आप इन महकमे के सबसे आला दर्जे पर (एडीशनल डायरेक्टर) के सबसे बड़े ओहदे पर फ़ाईज़ हुए। आपने अपनी दुनियावी तालीम अपने पीरो मुर्शिद के हुक्म के मुताबिक पूरी की।

 

 

जददोजहद का सफर

आपके वालिद माजिद का विसाल जल्दी हो जाने से घर के माली एवं दिगर हालात खराब हो गये थे। जिसकी वहज से आप हज़रत किबला पीरो मुर्शिद को और आप भाई-बहनो की पढ़ाई के साथ-साथ ज़राअत का काम करके घर के अखराजात को पूरा करते। इस दौरान आपकी वालिदा माजिदा मोहतरमा का साया-ए-आतिफत आप सभी पर रहा। वालिदा मोहतरमा ने काश्तकारी कर घर को सम्भाला और छोटे भाई सूफी अब्दुल वाजिद ने बैलगाड़ी चलाई व अब्दुल माजिद उर्फ भैया ने मवेशियों को चराया। बड़े भाई हजरत सूफी अब्दुल गनी साहब ने हाई स्कूल (मैट्रिक) करने के बाद स्कूल मास्टर की मुलाजमत इख्तियार कर घर के अखरा जात को पूरा करने में मदद की। इससे घर के हालात बदलने लगे। आप बड़े भाई साहब को वालिद जैसा दर्जा देते थे। आपके परिवार की गिनती शहर के मुअजि़्ज़ज़ व शरफाओं में होती है। कौम वाले ही नहीं बल्कि दिगर हजरात भी आप लोगों की बड़ी इज्जत और अदब करते हैं।

वालिदा माजिदा

आप हजरत किबला पीरो मुर्शिद की वालिदा माजिदा का इस्मे गिरामी बतूल बेगम है जो बिन्ते रसूलुल्लाह सल्ललाहो अलैह वसल्लम से मिलता जुलता है। हज़रत बतूल बिन्ते रसूललल्लाहसल्ललाहो अलैह वसल्लम का विसाल 3 रमज़ानुल मुबारक को हुआ और कु़दरते इलाही देखिये की आप हजरत किबला की वालिदा माजिदा मोहतरमा का विसाल भी 3 रमज़ानुल मुबारक यानि 16 फरवरी 1994 को मक़बूल वक्त में हुआ। हजरत किबला पीरो मुर्शिद अपनी वालिदा माजिदा से बेइंतिहा मोहब्बत किया करते थे और उनकी एक-एक जरूरत का ख्याल रखा करते हैं। इसी तरह आपके वालिद का विसाल 19 जिलहिज को हुआ।

कम उमरी और आप

हज़रत किबला पीरो मुर्शिद सूफी अब्दुर्रज़्ज़ाक़ शाह साहब का कम उमरी के दौर में भी दुनियावी कामों में मन नहीं लगता था। आप हमेशा अपनी पढ़ाई करते रहते या फिर घर के कामों को अंजाम देते। मस्जिद में भी आप यादे खुदा मंे मशग़ूल रहते। आपको कम उमरी से ही बुजुर्गाने दीन व औलिया अल्लाहो से मोहब्बत थी। इसलिए आप अक्सर एक इबादत गुजार शख्स जिनकी शहर दौसा के लोग बड़ी इज़्ज़त व अदब किया करते थे हज़रत सूफी महमूद शाह साहब रह. के पास जाया करते थे। सूफी महमूद मियां जो हजरत सुल्तानुल औलिया ख्वाजा सूफी मोहम्मद हसन शाह किबला से मुरीद थे। हजरत सूफी महमूद शाह साहब की बातों और वाक्यातों को सुनकर बचपन से ही मारेफत का एक दरिया आपके दिल में मौजे मारने लगा। अक्सर महमूद मियां फरमाते, बेटे (हजरत किबला सूफी अब्दुर्रज़्ज़ाक शाह साहब) हम आपको एक आलिम व कामिल पीर से मुरीद करवायेंगे। इसके बाद आपमें पीर के दीदार की तड़प जाग उठी। आप सूफी महमूद शाह साहब ही वो शख्सियत है जो 1957 में हजरत किबला महबूबे सुल्तानुल औलिया सूफी हकीमुद्दीन शाह साहब रह. को दौसा लाये और दौसा के लोगों को गोहरे नायाब तोहफा पेश कर सिर्फ 35 साल उम्र शरीफ में इस दुनिया से रूखसत हो गये। आपका मज़ार दौसा में हजरत जमाल शाह साहब की दरगाह शरीफ के अहाते में है।

बैअत

जिसके नसीब में है मुर्शिद की रहबरी जोहर।
वह पुलसिरात से भी बेखतर गुजर जाये ।।

दौरे तालीम में जब आपकी उम्र शरीफ 16-17 साल होगी आप दुनियावी तालीम की दरजा ग्यारह में पढ़ते थे। एक रोज आपने सुना के हज़रत सूफी महमूद शाह साहब जिन बुर्जुग हस्ती का जिक्ऱ किया करते थे। उस बुर्जुग कामिल को वे अजमेर शरीफ से दौसा लाये हैं, ये सुनकर आपकी दिलों की गहराई में जमी हुई मारफअत व इश्के शेख मौजे मारने लगा, थोड़ी ही देर बाद हजरत सूफी महमूद शाह साहब आये और आपको बारगाहे पीराने उज़्ज़ाम में हाजिरे खिदमत कर दिया। आप पीरो मुर्शिद को देखकर मुताअस्सिर हुए फिर उसी वक्त आप ने महबूबे सुल्तानुल औलिया हज़रत किबला सूफी हकीमुद्दीन शाह साहब के दस्ते हक़ परस्त पर बैअत होने का एज़ाज़ हासिल किया। आप मेहबूबे सुल्तानुल औलिया ने इस नन्ही-सी मासूम कली को अपने दामने फैज़ान में छुपा लिया, दिल की दुनिया जो एक अरसे से वीरान थी, एक ही लम्हे में सरसब्ज हो गई। इसके बाद तसव्वुरे शेख ही औढ़ना-बिछोना बन गया।

 

 

 

 

निगाहे करम हजरत सुल्तानुल ओलिया

 

‘‘निगाहे मर्दे मोमिन में वो तासीर देखी।
बदलती हज़ारों की तक़दीर देखी।।’’

 

महबूबे सुल्तानुल औलिया हज़रत किबला सूफी हकीमुदीन शाह साहब रह. के दौसा तशरीफ लाने के बाद शहर में अल्लाह-अल्लाह की सदाएं गूंज उठी। आपकी रूहानी कशिश का असर था कि सैंकडों अफराद आपके दस्ते हक परस्त पर बैअत होकर मुतमईन होने लगे और सिलसिला ए आलिया जहांगीरियां का कारवां बढ़ता चला गया। पूरे दौसा शहर में रूहानियत की सदाएं जलवागर होने लगीं। आपकी खास नज़रें इनायत हजरत किबला सूफी अब्दुर्रज़्ज़ाक़ शाह साहब पर होने लगी, आप हर छोटे-बड़े काम में आपको शरीक करने लगे, जबकि आपकी उम्र शरीफ उस वक्त बहुत कम थी। इसी दौरान सुल्तानुल औलिया हजरत किबला ख्वाजा मोहम्मद हसन शाह साहब का दौसा शरीफ तशरीफ लाने का प्रोग्राम बना। पीरो मुर्शिद महबूबे सुल्तानुल औलिया ने हस्बे दस्तूर सभी मुरीदेन को सुल्तानुल औलिया की तशरीफ आवरी पर अलग-अलग खित्तों में काम अन्ज़ाम देने के वास्ते मुन्तखब कर दिया और कुछ मुरीदैन खास को अपने साथ रेलवे स्टेशन पर हमराह ले गये। उनमें से एक हजरत किबला सूफी अब्दुर्रज़्ज़ाक़ शाह साहब भी थे। जब ट्रेन रेलवे स्टेशन पर पहुंची और सुल्तानुल औलिया ख्वाजा सूफी मोहम्मद हसन के दीदार हुए तो महबूबे सुल्तानुल औलिया
हजरत किबला सूफी हकीमुदीन शाह साहब और मुरीदेन खुशी से झूम उठे। उस नूरानी शख्सियत की खुशबू चारों तरफ फैलने लगी। महबूबे सुल्तानुल औलिया ने अपने पीरों मुर्शिद सुल्तानुल औलिया सूफी ख्वाजा मोहम्मद हसन शाह रह. से क़दम बोस होकर दस्त बोसी का शर्फ हासिल किया। आखिर में आपके महबूब (खुसरो) मुरीद हज़रत किबला सूफी अब्दुर्रज़्ज़ाक़ शाह साहब भी सुल्तानुल औलिया की बारगाह में हाजिरे खिदमते हुए और कदम बोसी का शर्फ हासिल किया। इस वक्त सुल्तानुल औलिया हज़रत किबला सूफी ख्वाजा मोहम्मद हसन शाह रह. लेटे हुए थे। आपने जैसे ही हमारे पीरो मुर्शिद हज़रत किबला सूफी डॉ. अब्दुर्रज़्ज़ाक़ शाह को देखा तो हुजूर सुल्तानुल औलिया के चेहरे मुबारक पर खुशी की लहर छा गई गोया कोई नायाब (अनमोल) चीज़ आपको मिल गई हो और आप सुल्तानुल औलिया ने उस नन्ही सी मासूम कली को अपने आगोशे रहमत में लेकर आपकी पेशानी को अपने लब मुबारक से चूमा गोया कि आपने ऐलान किया कि नन्ही कली आगे चलकर सिलसिलाए आलिया जहांगीरिया की इशाअत में एक बहुत बड़े चमन के रूप में नमूदार होगी। आप सुल्तानुल औलिया के पेशानी चूमने का असर आज भी अपने शबाब पर है। हजरत सुल्तानुल औलिया क़िबला की बारगाहे आलिया में जो भी खुलूस दिल के साथ हाजिर हुआ खाली हाथ न लौटा।

खिदमते पीरो मुर्शिद

आप बड़ी अक़ीदत और खुलूस मोहब्बत के साथ बारगाहें पीराने उज़्ज़ाम में हाज़िर हुआ करते थे। पढ़ाई के अलावा जब भी आपको वक्त मिलता आप बारगाहें पीराने उज़्ज़ाम में हाजिर होते। कोई एक दिन भी ऐसा नहीं होता था कि आपके पीरो मुर्शिद दौसा में हों और आप हाज़िरे खिदमत न हों। इसके अलावा भी रात-रात भर पीरो मुर्शिद की खिदमत में हाज़िर रहते। हज़रत मेहबूबे सुल्तानुल औलिया अक्सर आपको पढ़ाई की तलकीन करते। आप अपने पीरो मुर्शिद के इसी हुक्म को बजा लाते हुए अपनी पढ़ाई पर खुसूसी तवज़्जो दिया करते। पीरों मुर्षिद के विसाल के बाद भी अक्सर आप आस्ताने षरीफ पर हाजिर होते रहते हैं।

करामाते पीरो मुर्शिद

पीरो मुर्शिद (डॉ) हज़रत मियां सूफी अब्दुर्रज़्ज़ाक़ शाह हकीमी मद्दजिल्लहुल आली ने अपने पीरो मुर्शिद की शान में विसाल के बाद का एक वाकिया बज़ाहिर अपनी जबाने मुबारक नवाजिशे करम के बारे में फरमाया। सन 1989-90 में जिस वक्त आप प्रिंसिपल के ओहदे पर दौसा स्कूल में फाइज थे और आपका प्रमोशन जिला शिक्षा अधिकारी के पद पर होने वाला था। उस वक्त लोग आप से कहते कि सिफारिश करवाओ ताकि आपको जयपुर जिला मिल जाए। आप उनकी बातें सुनकर मुस्कुराते और कहते करेंगे। आप अपने पीरो मुर्शिद हज़रत किबला रूही फिदा हुजूर महबूबे सुल्तानुल औलिया हज़रत ख्वाजा सूफी हकीमुदीन शाह कुद्दसिर्रहुल अज़ीज़ के आस्तानाएं आलिया पर हाजिरे खिदमत हुए और फरियाद अर्ज कर दी। उन्हीं दिनों एक रात आपको बशारत हुई के पीरो मुर्शिद हजरत किबला रूही फिदा हुजूर महबूबे सुल्तानुल औलिया हज़रत ख्वाजा सूफी हकीमुदीन शाह कुद्दसिर्रहुल अजी़ज़ अपने पीरो मुर्शिद हुजूर सुल्तानुल औलिया हजरत ख्वाजा मोहम्मद हसन शाह कुद्दसिर्रहुल अज़ीज़ की खिदमते अक़दस में हाज़िर होकर अर्ज कर रहे हैं हुजूर मेरे रज्ज़ाक को दौसा में मेरे पास ही रहने दो। (उस वक्त दौसा जयपुर जिले में षामिल था) उस वक्त हुजूर सुल्तानुल औलिया हजरत ख्वाजा मोहम्मद हसन शाह कुद्दसिर्रहुल अज़ीज़ ने दुआ के लिए हाथ उठाऐ ओर ये अल्फाज आपकी जबाने मुबारक से जारी हुए। ‘‘या रसूललल्लाह’’ इसके बाद हुजूर सुल्तानुल औलिया हजरत ख्वाजा मोहम्मद हसन शाह कुद्दसिर्रहुल अज़ीज़ ने हुजूर महबूबे सुल्तानुल औलिया हज़रत ख्वाजा सूफी हक़ीमुदीन शाह कुद्दसिर्रहुल अज़ीज़ से फरमाया ’’अब तो खुश हो’’। इस ख्वाबे अजीम की बरकत के कुछ ही दिनों के बाद आपको जिला शिक्षा अधिकारी जयपुर का ओहदा मिला।

 

तूफान कर रहा था मेरे अज्म का तवाफ ।
दुनिया समझ रही थी कश्ती भॅंवर में है।।

पीरो मुर्शिद हजरत किबला सूफी डॉ. अब्दुर्रज़्ज़ाक़ शाह साहब वे हैं जिन्होंने तारीख के सफहात पर सुनहरे हुरफो से अपना नाम लिखवा दिया है। सिलसिला आलिया जहाँगीरिया की ये बे-मिसाल शख्सियत अपने अन्दर एक जहाँ को समेटे हुए है। मोहब्बत, अकीदत, सादगी और ज़ज़्बाए खिदमत आपके मिज़ाज में दाखिल हैं। सिलसिलाए आलिया जहाँगीरिया के लिए आपकी बेमिसाल जद्दोजहद दिगर हजरात के लिए नमूनाए अमल की हैसियत रखती है। हजरत मेहबूबे सुल्तानुल औलिया का फरमाने मुबारक ‘‘अब्दुर्रज़्ज़ाक़ मेरा खुसरो और मैं निजामुद्दीन’’ ये बात आपकी अकी़दत मोहब्बत और पीर परस्ती से खुश होकर फरमाई। आपसे मखसूस लगाव, खास निगाहें करम की यह एक अज़ीम निशानी है। आपके एक पीरभाई फरमाते हैं कि सूफी (डॉ.) अब्दुर्रज़्ज़ाक शाह जब बीए. की पढ़ाई कर रहे थे, उस वक्त आपके पीरों मुर्षिद ने फरमाया था कि इनके लाखों मुरीद होंगे और बहुत बड़े ओहदे पर फाइज़ होंगे। पीर कामिल की जबान मुबारक से निकले हुए ये लफ्ज हुरूफ-ब-हरूफ सही साबित होने की सिम्त रवां-दवां हैं। पीरो मुर्शिद की निगाहे करम में वो तासीर होती है कि मुरीद अदना से आला मुकाम पर फाइज़ हो जाता है। आपके ज़रिये सिलसिला-ए-ऑलिया जहाँगीरिया में लाखों अफराद फैज़याब हो रहे हैं। इस कलम में ताकत कहां कि वो पीरों मुर्शिद की वस्फ बयानी कर सके।

ये इनायत क्या कम है मेरे पीर के पीर की
खिलाफत अता कर खुसरो नवाजा
हर-दम नज़र है मेरे पीर पर पीर की

 


>इजाज़त व खिलाफत

 

 

 

 

1960 में हज़रत महबूबे सुल्तानुल ओलिया किबला ने आपको जहांगीरी ताज अता कर इजाजत व खिलाफत से सरफराज़ फरमाया। राजस्थान में सिलसिलाए आलिया जहांगीरिया की इसाअत का काम तो मर्शिदे गिरामी महबूबे सुल्तानुल औलिया की जाते गिरामी से मन्सूब है, मगर इसका उरूज आपके ज़रिये हुआ। अलहम्दोलिल्लाह उरूज बराये सिलसिला ज़ारी है, और इन्शा अल्लाह तआला आगे भी जारी रहेगा (आमीन)। महबूबे सुल्तानुल औलिया के खुलाफाए किराम के ताअल्लुक से सिलसिलाए आलिया जहांगीरिया की तारीख के अव्वलीन सफा पर हज़रत ख्वाजा सूफी अर्ब्दुरज़्ज़ाक़ शाह क़िबला का इस्मेगिरामी सुनहरे हुरूफों से तहरीर किये जाने का मुस्तहब है। आपने इस्तक़लाल, खुलूस, मोहब्बत, मेहनत और लगन से जिस अन्दाज में सिलसिला ए आलिया जहांगीरिया की इशाअत में शबो रोज मशगूलियत इख्तियार फरमाई हैं, वो अपनी मिसाल आप हैं। बिला शुबहा सिलसिलाऐं आलिया के मोअतबर और मुस्तनद हज़रात को आपकी ज़ात पर फख्र है।

पीरो मुर्शिद के हमराह पहला सफर

हज़रत महबूबे सुल्तानुल औलिया के हमराह आपने पहली मुकद्दस हाज़री दरबारे सुल्तानुल हिन्द ख्वाज़ा गरीब नवाज़ के आस्तानाएं आलिया पर देने का शर्फ हासिल किया। ये सफर दौसा से शुरू होकर जयपुर, केकड़ी होते हुए अजमेर शरीफ तक पहुंचा।

औलाद

हजरत किबला सूफी डॉ. अब्दुर्रज़्ज़ाक़ शाह साहब की अहलिया का इस्मे गिरामी मोहतरमा हबीबन बेगम है। आपको भी अपने पीरो मुर्शिद महबूबे सुल्तानुल औलिया से बेहद अक़ीदत मोहब्बत है और हजरत क़िबला की खिदमात को अन्जाम दिया। आपके तीन साहबजादे और तीन साहबजादिया है। जिनके इस्मे गिरामी मोहतरमा नूरजहां बेगम, मोहतरमा रईसा बेगम, हजरत सूफी डॉ. अब्दुल हमीद, हज़रत सूफी अब्दुल लतीफ उर्फ अन्ना मियां, हज़रत सूफी अबूल कलाम उर्फ गुड्डू मियां व मोहतरमा तनवीर बेगम।
मुर्शिद के तू मन भाया, खुसरो का लकब पाया
क्या शान अता की है, मुर्षिद तेरा शुकराना

 

 

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